Sunday, 23 March 2014

"सूर्याष्टक स्तोत्र"

आदि देव: नमस्तुभ्यम प्रसीद मम भास्कर । दिवाकर नमस्तुभ्यम प्रभाकर नमोअस्तु ते ॥
    सप्त अश्व रथम आरूढम प्रचंडम कश्यप आत्मजम । श्वेतम पदमधरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
    लोहितम रथम आरूढम सर्वलोकम पितामहम । महा पाप हरम देवम त्वम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
    त्रैगुण्यम च महाशूरम ब्रह्मा विष्णु महेश्वरम । महा पाप हरम देवम त्वम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
    बृंहितम तेज: पुंजम च वायुम आकाशम एव च । प्रभुम च सर्वलोकानाम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
    बन्धूक पुष्प संकाशम हार कुण्डल भूषितम । एक-चक्र-धरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
    तम सूर्यम जगत कर्तारम महा तेज: प्रदीपनम । महापाप हरम देवम तम सूर्यम प्रणमामि अहम ॥
    सूर्य-अष्टकम पठेत नित्यम ग्रह-पीडा प्रणाशनम । अपुत्र: लभते पुत्रम दरिद्र: धनवान भवेत ॥
    आमिषम मधुपानम च य: करोति रवे: दिने । सप्त जन्म भवेत रोगी प्रतिजन्म दरिद्रता ॥
    स्त्री तैल मधु मांसानि य: त्यजेत तु रवेर दिने । न व्याधि: शोक दारिद्रयम सूर्यलोकम गच्छति ॥
    सूर्याष्टक सिद्ध स्तोत्र है,प्रात: स्नानोपरान्त तांबे के पात्र से सूर्य को अर्घ देना चाहिये,तदोपरान्त सूर्य के सामने खडे होकर सूर्य को देखते हुए नित्य  पाठ करने चाहिये.

सूर्य के लिये आदित्य मंत्र

विनियोग :- ऊँ आकृष्णेनि मन्त्रस्य हिरण्यस्तूपांगिरस ऋषि स्त्रिष्टुप्छन्द: सूर्यो देवता सूर्यप्रीत्यर्थे जपे विनियोग:
    देहान्गन्यास :- आकृष्णेन शिरसि,रजसा ललाटे,वर्तमानो मुखे,निवेशयन ह्रदये,अमृतं नाभौ,मर्त्यं च कट्याम,हिरण्येन सविता ऊर्व्वौ,रथेना जान्वो:,देवो याति जंघयो:,भुवनानि पश्यन पादयो:.
    करन्यास :- आकृष्णेन रजसा अंगुष्ठाभ्याम नम:,वर्तमानो निवेशयन तर्जनीभ्याम नम:,अमृतं मर्त्यं च मध्यामाभ्याम नम:,हिरण्ययेन अनामिकाभ्याम नम:,सविता रथेना कनिष्ठिकाभ्याम नम:,देवो याति भुवनानि पश्यन करतलपृष्ठाभ्याम नम:
    ह्रदयादिन्यास :- आकृष्णेन रजसा ह्रदयाय नम:,वर्तमानो निवेशयन शिरसे स्वाहा,अमृतं मर्त्यं च शिखायै वषट,हिरण्येन कवचाय हुम,सविता रथेना नेत्रत्र्याय वौषट,देवो याति भुवनानि पश्यन अस्त्राय फ़ट (दोनो हाथों को सिर के ऊपर घुमाकर दायें हाथ की पहली दोनों उंगलियों से बायें हाथ पर ताली बजायें.
    ध्यानम :- पदमासन: पद मकरो द्विबाहु: पद मद्युति: सप्ततुरंगवाहन: । दिवाकरो लोकगुरु: किरीटी मयि प्रसादं विदधातु देव: ॥
    सूर्य गायत्री :- ऊँ आदित्याय विदमहे दिवाकराय धीमहि तन्न: सूर्य: प्रचोदयात.
    सूर्य बीज मंत्र :- ऊँ ह्रां ह्रीं ह्रौं स: ऊँ भूभुर्व: स्व: ऊँ आकृष्णेन रजसा वर्तमानो निवेशयन्नमृतम्मर्तंच । हिण्ययेन सविता रथेना देवो याति भुवनानि पश्यन ऊँ स्व: भुव: भू: ऊँ स: ह्रौं ह्रीं ह्रां ऊँ सूर्याय नम: ॥
    सूर्य जप मंत्र :- ऊँ ह्राँ ह्रीँ ह्रौँ स: सूर्याय नम: ।

सूर्य ग्रह से प्रदत्त व्यापार और नौकरी

स्वर्ण का व्यापार,हथियारों का निर्माण, ऊन का व्यापार,पर्वतारोहण प्रशिक्षण,औषधि विक्रय,जंगल की ठेकेदारी,लकडी या फ़र्नीचर बेचने का काम,बिजली वाले सामान का व्यापार आदि सूर्य ग्रह की सीमा रेखा में आते है.शनि के साथ मिलकर हार्डवेयर का काम,शुक्र के साथ मिलकर पेन्ट और रंगरोगन का काम,बुध के साथ मिलकर रुपया पैसा भेजने और मंगाने का काम,आदि हैं.सचिव,उच्च अधिकारी,मजिस्ट्रेट,साथ ही प्रबल राजयोग होने पर राष्ट्रपति,प्रधान मंत्री,राज्य मंत्री,संसद सदस्य,इन्जीनियर,न्याय सम्बन्धी कार्य,राजदूत,और व्यवस्थापक आदि के कार्य नौकरी के क्षेत्र में आते हैं.सूर्य की कमजोरी के लिये सूर्य के सामने खडे होकर नित्य सूर्य स्तोत्र,सूर्य गायत्री,सूर्य मंत्र आदि का जाप करना हितकर होता है.

सूर्य ग्रह के लिये दान

सूर्य ग्रह के दुष्प्रभाव से बचने के लिये अपने बजन के बराबर के गेंहूं,लाल और पीले मिले हुए रंग के वस्त्र,लाल मिठाई,सोने के रबे,कपिला गाय,गुड और तांबा धातु,श्रद्धा पूर्वक किसी गरीब ब्राहमण को बुलाकर विधि विधान से संकल्प पूर्वक दान करना चाहिये.

सूर्य ग्रह की जडी बूटियां

बेल पत्र जो कि शिवजी पर चढाये जाते है,आपको पता होगा,उसकी जड रविवार को हस्त या कृत्तिका नक्षत्र में लाल धागे से पुरुष दाहिने बाजू में और स्त्रियां बायीं बाजू में बांध लें,इस के द्वारा जो रत्न और उपरत्न खरीदने में अस्मर्थ है,उनको भी फ़ायदा होगा.

सूर्य ग्रह के रत्न उपरत्न

सूर्य ग्रह के रत्नों मे माणिक और उपरत्नो में लालडी, तामडा,और महसूरी.पांच रत्ती का रत्न या उपरत्न रविवार को कृत्तिका नक्षत्र में अनामिका उंगली में सोने में धारण करनी चाहिये.इससे इसका दुष्प्रभाव कम होना चालू हो जाता है.और अच्छा रत्न पहिनते ही चालीस प्रतिशत तक फ़ायदा होता देखा गया है.रत्न की विधि विधान पूर्वक उसकी ग्रहानुसार प्राण प्रतिष्ठा अगर नही की जाती है,तो वह रत्न प्रभाव नही दे सकता है.इसलिये रत्न पहिनने से पहले अर्थात अंगूठी में जडवाने से पहले इसकी प्राण प्रतिष्ठा करलेनी चाहिये.क्योंकि पत्थर तो अपने आप में पत्थर ही है,जिस प्रकार से मूर्तिकार मूर्ति को तो बना देता है,लेकिन जब उसे मन्दिर में स्थापित किया जाता है,तो उसकी विधि विधान पूर्वक प्राण प्रतिष्ठा करने के बाद ही वह मूर्ति अपना असर दे सकती है.इसी प्रकार से अंगूठी में रत्न तभी अपना असर देगा जब उसकी विधि विधान से प्राण प्रतिष्ठा की जायेगी.

सूर्य ग्रह से प्रदान किये जाने वाले रोग -

जातक के गल्ती करने और आत्म विश्लेषण के बाद जब निन्दनीय कार्य किये जाते हैं,तो सूर्य उन्हे बीमारियों और अन्य तरीके से प्रताडित करने का काम करता है,सबसे बडा रोग निवारण का उपाय है कि किये जाने वाले गलत और निन्दनीय कार्यों के प्रति पश्चाताप,और फ़िर से नही करने की कसम,और जब प्रायश्चित कर लिया जाय तो रोगों को निवारण के लिये रत्न,जडी,बूटियां,आदि धारण की जावें,और मंत्रों का नियमित जाप किया जावे.सूर्य ग्रह के द्वारा प्रदान कियेजाने वाले रोग है- सिर दर्द,बुखार,नेत्र विकार,मधुमेह,मोतीझारा,पित्त रोग,हैजा,हिचकी. यदि औषिधि सेवन से भी रोग ना जावे तो समझ लेना कि सूर्य की दशा या अंतर्दशा लगी हुई है.और बिना किसी से पूंछे ही मंत्र जाप,रत्न या जडी बूटी का प्रयोग कर लेना चाहिये.इससे रोग हल्का होगा और ठीक होने लगेगा.

सूर्य प्रत्यक्ष देवता है !

सूर्य प्रत्यक्ष देवता है,सम्पूर्ण जगत के नेत्र हैं.इन्ही के द्वारा दिन और रात का सृजन होता है.इनसे अधिक निरन्तर साथ रहने वाला और कोई देवता नही है.इन्ही के उदय होने पर सम्पूर्ण जगत का उदय होता है,और इन्ही के अस्त होने पर समस्त जगत सो जाता है.इन्ही के उगने पर लोग अपने घरों के किवाड खोल कर आने वाले का स्वागत करते हैं,और अस्त होने पर अपने घरों के किवाड बन्द कर लेते हैं.सूर्य ही कालचक्र के प्रणेता है.सूर्य से ही दिन रात पल मास पक्ष तथा संवत आदि का विभाजन होता है.सूर्य सम्पूर्ण संसार के प्रकाशक हैं.इनके बिना अन्धकार के अलावा और कुछ नही है.सूर्य आत्माकारक ग्रह है,यह राज्य सुख,सत्ता,ऐश्वर्य,वैभव,अधिकार,आदि प्रदान करता है.यह सौरमंडल का प्रथम ग्रह है,कारण इसके बिना उसी प्रकार से हम सौरजगत को नही जान सकते थे,जिस प्रकार से माता के द्वारा पैदा नही करने पर हम संसार को नही जान सकते थे.सूर्य सम्पूर्ण सौर जगत का आधार स्तम्भ है.अर्थात सारा सौर मंडल,ग्रह,उपग्रह,नक्षत्र आदि सभी सूर्य से ही शक्ति पाकर इसके इर्द गिर्द घूमा करते है,यह सिंह राशि का स्वामी है,परमात्मा ने सूर्य को जगत में प्रकाश करने,संचालन करने,अपने तेज से शरीर में ज्योति प्रदान करने,तथा जठराग्नि के रूप में आमाशय में अन्न को पचाने का कार्य सौंपा है.<ज्योतिष< शास्त्र में सूर्य को मस्तिष्क का अधिपति बताया गया है,ब्रह्माण्ड में विद्यमान प्रज्ञा शक्ति और चेतना तरंगों के द्वारा मस्तिष्क की गतिशीलता उर्वरता और सूक्षमता के विकाश और विनाश का कार्य भी सूर्य के द्वारा ही होता है.यह संसार के सभी जीवों द्वारा किये गये सभी कार्यों का साक्षी है.और न्यायाधीश के सामने साक्ष्य प्रस्तुत करने जैसा काम करता है.यह जातक के ह्रदय के अन्दर उचित और अनुचित को बताने का काम करता है,किसी भी अनुचित कार्य को करने के पहले यह जातक को मना करता है,और अंदर की आत्मा से आवाज देता है.साथ ही जान बूझ कर गलत काम करने पर यह ह्रदय और हड्डियों में कम्पन भी प्रदान करता है.गलत काम को रोकने के लिये यह ह्रदय में साहस का संचार भी करता है.

    जो जातक अपनी शक्ति और अंहकार से चूर होकर जानते हुए भी निन्दनीय कार्य करते हैं,दूसरों का शोषण करते हैं,और माता पिता की सेवा न करके उनको नाना प्रकार के कष्ट देते हैं,सूर्य उनके इस कार्य का भुगतान उसकी विद्या,यश,और धन पर पूर्णत: रोक लगाकर उसे बुद्धि से दीन हीन करके पग पग पर अपमानित करके उसके द्वारा किये गये कर्मों का भोग करवाता है.आंखों की रोशनी का अपने प्रकार से हरण करने के बाद भक्ष्य और अभक्ष्य का भोजन करवाता है,ऊंचे और नीचे स्थानों पर गिराता है,चोट देता है.
    श्रेष्ठ कार्य करने वालों को सदबुद्धि,विद्या,धन,और यश देकर जगत में नाम देता है,लोगों के अन्दर इज्जत और मान सम्मान देता है.उन्हें उत्तम यश का भागी बना कर भोग करवाता है.जो लोग आध्यात्म में अपना मन लगाते हैं,उनके अन्दर भगवान की छवि का रसस्वादन करवाता है.सूर्य से लाल स्वर्ण रंग की किरणें न मिलें तो कोई भी वनस्पति उत्पन्न नही हो सकती है.इन्ही से यह जगत स्थिर रहता है,चेष्टाशील रहता है,और सामने दिखाई देता है.
जातक अपना हाथ देख कर अपने बारे में स्वयं निर्णय कर सकता है,यदि सूर्य रेखा हाथ में बिलकुल नही है,या मामूली सी है,तो उसके फ़लस्वरूप उसकी विद्या कम होगी,वह जो भी पढेगा वह कुछ कल बाद भूल जायेगा,धनवान धन को नही रोक पायेंगे,पिता पुत्र में विवाद होगा,और अगर इस रेखा में द्वीप आदि है तो निश्चित रूप से गलत इल्जाम लगेंगे.अपराध और कोई करेगा और सजा जातक को भुगतनी पडेगी.

    सूर्य क्रूर ग्रह भी है,और जातक के स्वभाव में तीव्रता देता है.यदि ग्रह तुला राशि में नीच का है तो वह तीव्रता..
[3/22/2014 11:43:14 PM] Ashish Tripathi:     जातक के लिये घातक होगी,दुनियां की कोई औषिधि,यंत्र,जडी,बूटी नही है जो इस तीव्रता को कम कर सके.केवल सूर्य मंत्र में ही इतनी शक्ति है,कि जो इस तीव्रता को कम कर सकता है.

    सूर्य जीव मात्र को प्रकाश देता है.जिन जातकों को सूर्य आत्मप्रकाश नही देता है,वे गलत से गलत औ निंदनीय कार्य क बैठते है.और यह भी याद रखना चाहिये कि जो कर्म कर दिया गया है,उसका भुगतान तो करना ही पडेगा.जिन जातकों के हाथ में सूर्य रेखा प्रबल और साफ़ होती है,उन्हे समझना चाहिये कि सूर्य उन्हें पूरा बल दे रहा है.इस प्रकार के जातक कभी गलत और निन्दनीय कार्य नही कर सकते हैं.उनका ओज और तेज सराहनीय होता है.

बारह भावों में सूर्य की स्थिति

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  1. प्रथम भाव में सूर्य -स्वाभिमानी शूरवीर पर्यटन प्रिय क्रोधी परिवार से व्यथित धन में कमी वायु पित्त आदि से शरीर में कमजोरी.
  2.     दूसरे भाव में सूर्य - भाग्यशाली पूर्ण सुख की प्राप्ति, धन अस्थिर लेकिन उत्तम कार्यों के अन्दर   व्यय, स्त्री के कारण परिवार में कलह, मुख और नेत्र रोग, पत्नी को ह्रदय रोग. शादी के बाद जीवन साथी के पिता को हानि.
  3.     तीसरे भाव में सूर्य - प्रतापी, पराक्रमी, विद्वान, विचारवान, कवि, राज्यसुख, मुकद्दमे में विजय, भाइयों के अन्दर राजनीति होने से परेशानी.
  4.     चौथे भाव में सूर्य - ह्रदय में जलन, शरीर से सुन्दर, गुप्त विद्या प्रेमी, विदेश गमन, राजकीय चुनाव आदि में विजय, युद्ध वाले कारण, मुकद्दमे आदि में पराजित,व्यथित मन.
  5.     पंचम भाव में सूर्य - कुशाग्र बुद्धि,धीरे धीरे धन की प्राप्ति,पेट की बीमारियां,राजकीय शिक्षण संस्थानो से लगाव,मोतीझारा,मलेरिया बुखार.
  6.     छठवें भाव में सूर्य - निरोगी न्यायवान, शत्रु नाशक, मातृकुल से कष्ट.
  7.     सप्तम भाव में सूर्य - कठोर आत्म रत, राज्य वर्ग से पीडित,व्यापार में हानि, स्त्री कष्ट.
  8.     आठवें भाव में सूर्य - धनी, धैर्यवान, काम करने के अन्दर गुस्सा, चिन्ता से ह्रदय रोग, आलस्य से धन नाश, नशे आदि से स्वास्थ्य खराब.
  9.     नवें भाव में सूर्य - योगी, तपस्वी, ज्योतिषी,साधक,सुखी,लेकिन स्वभाव से क्रूर.
  10.     दसवें भाव में सूर्य - व्यवहार कुशल, राज्य से सम्मान, उदार, ऐश्वर्य, माता को नकारात्मक विचारों से कष्ट, अपने ही लोगों से बिछोह.
  11.     ग्यारहवें भाव में सूर्य - धनी सुखी बलबान स्वाभिमानी सदाचारी शत्रुनाशक, अनायास सम्पत्ति की प्राप्ति, पुत्र की पत्नी या पुत्री के पति (दामाद) से कष्ट.
  12.     बारहवें भाव में सूर्य - उदासीन, आलसी, नेत्र रोगी, मस्तिष्क रोगी, लडाई झगडे में विजय,बहस करने की आदत.

सूर्य के साथ अन्य ग्रहों के अटल नियम

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  •     सूर्य मंगल गुरु=सर्जन
  •     सूर्य मंगल राहु=कुष्ठ रोग
  •     सूर्य मंगल शनि केतु=पिता अन्धे हों
  •     सूर्य के आगे शुक्र = धन हों.
  •     सूर्य के आगे बुध = जमीन हो.
  •     सूर्य केतु =पिता राजकीय सेवा में हों,साधु स्वभाव हो,अध्यापक का कार्य भी हो सकता है.
  •     सूर्य बृहस्पति के आगे = जातक पिता वाले कार्य करे.
  •     सूर्य शनि शुक्र बुध =पेट्रोल,डीजल वाले काम.
  •     सूर्य राहु गुरु =मस्जिद या चर्च का अधिकारी.
  •     सूर्य के आगे मंगल राहु हों तो पैतृक सम्पत्ति समाप्त.

सूर्य का अन्य ग्रहों के साथ होने पर

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सूर्य और चन्द्र दोनो के एक साथ होने पर सूर्य को पिता और चन्द्र को यात्रा मानने पर पिता की यात्रा के प्रति कहा जा सकता है.सूर्य राज्य है तो चन्द्र यात्रा राजकीय यात्रा भी कही जा सकती है.एक संतान की उन्नति जन्म स्थान से बाहर होती है.
    सूर्य और मंगल के साथ होने पर मंगल शक्ति है अभिमान है,इस प्रकार से पिता शक्तिशाली और प्रभावी होता है.मंगल भाई है तो वह सहयोग करेगा,मंगल रक्त है तो पिता और पुत्र दोनो में रक्त सम्बन्धी बीमारी होती है,ह्रदय रोग भी हो सकता है.दोनो ग्रह १-१२ या १७ में हो तो यह जरूरी हो जाता है.स्त्री चक्र में पति प्रभावी होता है,गुस्सा अधिक होता है,परन्तु आपस में प्रेम भी अधिक होता है,मंगल पति का कारक बन जाता है.
    सूर्य और बुध में बुध ज्ञानी है,बली होने पर राजदूत जैसे पद मिलते है,पिता पुत्र दोनो ही ज्ञानी होते हैं.समाज में प्रतिष्ठा मिलती है.जातक के अन्दर वासना का भंडार होता है,दोनो मिलकर नकली मंगल का रूप भी धारण करलेता है.पिता के बहन हो और पिता के पास भूमि भी हो,पिता का सम्बन्ध किसी महिला से भी हो.
    सूर्य और गुरु के साथ होने पर सूर्य आत्मा है,गुरु जीव है.इस प्रकार से यह संयोग एक जीवात्मा संयोग का रूप ले लेता है.जातक का जन्म ईश्वर अंश से हो,मतलब परिवार के किसी पूर्वज ने आकर जन्म लिया हो,जातक में दूसरों की सहायता करने का हमेशा मानस बना रहे,और जातक का यश चारो तरफ़ फ़ैलता रहे,सरकारी क्षेत्रों में जातक को पदवी भी मिले.जातक का पुत्र भी उपरोक्त कार्यों में संलग्न रहे,पिता के पास मंत्री जैसे काम हों,स्त्री चक्र में उसको सभी प्रकार के सुख मिलते रहें,वह आभूषणों आदि से कभी दुखी न रहे,उसे अपने घर और ससुराल में सभी प्रकार के मान सम्मान मिलते रहें.
    सूर्य और शुक्र के साथ होने पर सूर्य पिता है और शुक्र भवन,वित्त है,अत: पिता के पास वित्त और भवन के साथ सभी प्रकार के भौतिक सुख हों,पुत्र के बारे में भी यह कह सकते हैं.शुक्र रज है और सूर्य गर्मी अत: पत्नी को गर्भपात होते रहें,संतान कम हों,१२ वें या दूसरे भाव में होने पर आंखों की बीमारी हो,एक आंख का भी हो सकता है.६ या ८ में होने पर जीवन साथी के साथ भी यह हो सकता है.स्त्री चक्र में पत्नी के एक बहिन हो जो जातिका से बडी हो,जातक को राज्य से धन मिलता रहे,सूर्य जातक शुक्र पत्नी की सुन्दरता बहुत हो.शुक्र वीर्य है और सूर्य गर्मी जातक के संतान पैदा नही हो.स्त्री की कुन्डली में जातिका को मूत्र सम्बन्धी बीमारी देता है.अस्त शुक्र स्वास्थ्य खराब करता है.
    सूर्य और शनि के साथ होने पर शनि कर्म है और सूर्य राज्य,अत: जातक के पिता का कार्य सरकारी हो,सूर्य पिता और शनि जातक के जन्म के समय काफ़ी परेशानी हुई हो.पिता के सामने रहने तक पुत्र आलसी हो,पिता और पुत्र के साथ रहने पर उन्नति नही हो.वैदिक ज्योतिष में इसे पितृ दोष माना जाता है.अत: जातक को रोजाना गायत्री का जाप २४ या १०८ बार करना चाहिये.
    सूर्य और राहु के एक साथ होने पर सूचना मिलती है कि जातक के पितामह प्रतिष्ठित व्यक्ति होने चाहिये,एक पुत्र सूर्य अनैतिक राहु हो,कानून विरुद्ध जातक कार्य करता हो,पिता की मौत दुर्घटना में हो,जातक के जन्म के समय में पिता को चोट लगे,जातक को संतान कठिनाई से हो,पिता के किसी भाई को अनिष्ठ हो.शादी में अनबन हो.
    सूर्य और केतु साथ होने पर पिता और पुत्र दोनों धार्मिक हों,कार्यों में कठिनाई हो,पिता के पास भूमि हो लेकिन किसी काम की नही हो.

Saturday, 22 March 2014

भारतीय ज्योतिष में सूर्य

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भारतीय ज्योतिष में सूर्य को आत्मा का कारक माना गया है.सूर्य से सम्बन्धित नक्षत्र कृतिका उत्तराषाढा और उत्तराफ़ाल्गुनी हैं.यह भचक्र की पांचवीं राशि सिंह का स्वामी है.सूर्य पिता का प्रतिधिनित्व करता है,लकडी मिर्च घास हिरन शेर ऊन स्वर्ण आभूषण तांबा आदि का भी कारक है.मन्दिर सुन्दर महल जंगल किला एवं नदी का किनारा इसका निवास स्थान है.शरीर में पेट आंख ह्रदय चेहरा का प्रतिधिनित्व करता है.और इस ग्रह से आंख सिर रक्तचाप गंजापन एवं बुखार संबन्धी बीमारी होती हैं.सूर्य की जाति क्षत्रिय है.शरीर की बनाव सूर्य के अनुसार मानी जाती है.हड्डियों का ढांचा सूर्य के क्षेत्र में आता है.सूर्य का अयन ६ माह का होता है.६ माह यह दक्षिणायन यानी भूमध्य रेखा के दक्षिण में मकर वृत पर रहता है,और ६ माह यह भूमध्य रेखा के उत्तर में कर्क वृत पर रहता है.इसका रंग केशरिया माना जाता है.धातु तांबा और रत्न माणिक उपरत्न लाडली है.यह पुरुष ग्रह है.इससे आयु की गणना ५० साल मानी जाती है.सूर्य अष्टम मृत्यु स्थान से सम्बन्धित होने पर मौत आग से मानी जाती है.सूर्य सप्तम द्रिष्टि से देखता है.सूर्य की दिशा पूर्व है.सबसे अधिक बली होने पर यह राजा का कारक माना जाता है.सूर्य के मित्र चन्द्र मंगल और गुरु हैं.शत्रु शनि और शुक्र हैं.समान देखने वाला ग्रह बुध है.सूर्य की विंशोत्तरी दशा ६ साल की होती है.सूर्य गेंहू घी पत्थर दवा और माणिक्य पदार्थो पर अपना असर डालता है.पित्त रोग का कारण सूर्य ही है.और वनस्पति जगत में लम्बे पेड का कारक सूर्य है.मेष के १० अंश पर उच्च और तुला के १० अंश पर नीच माना जाता है.सूर्य का भचक्र के अनुसार मूल त्रिकोण सिंह पर ० अंश से लेकर १० अंश तक शक्तिशाली फ़लदायी होता है.सूर्य के देवता भगवान शिव हैं.सूर्य का मौसम गर्मी की ऋतु है.सूर्य के नक्षत्र कृतिका का फ़ारसी नाम सुरैया है.और इस नक्षत्र से शुरु होने वाले नाम ’अ’ ई उ ए अक्षरों से चालू होते हैं.इस नक्षत्र के तारों की संख्या अनेक है.इसका एक दिन में भोगने का समय एक घंटा है.

सूर्य का रथ

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इस रथ का विस्तार नौ हजार योजन है। इससे दुगुना इसका ईषा-दण्ड (जूआ और रथ के बीच का भाग) है। इसका धुरा डेड़ करोड़ सात लाख योजन लम्बा है, जिसमें पहिया लगा हुआ है। उस पूर्वाह्न, मध्याह्न और पराह्न रूप तीन नाभि, परिवत्सर आदि पांच अरे और षड ऋतु रूप छः नेमि वाले अक्षस्वरूप संवत्सरात्मक चक्र में सम्पूर्ण कालचक्र स्थित है। सात छन्द इसके घोड़े हैं: गायत्री, वृहति, उष्णिक, जगती, त्रिष्टुप, अनुष्टुप और पंक्ति। इस रथ का दूसरा धुरा साढ़े पैंतालीस सहस्र योजन लम्बा है। इसके दोनों जुओं के परिमाण के तुल्य ही इसके युगार्द्धों (जूओं) का परिमाण है। इनमें से छोटा धुरा उस रथ के जूए के सहित ध्रुव के आधार पर स्थित है, और दूसरे धुरे का चक्र मानसोत्तर पर्वत पर स्थित है।

मानसोत्तर पर्वत

    इस पर्वत के पूर्व में इन्द्र की वस्वौकसारा स्थित है।
    इस पर्वत के पश्चिम में वरुण की संयमनी स्थित है।
    इस पर्वत के उत्तर में चंद्रमा की सुखा स्थित है।
    इस पर्वत के दक्षिण में यम की विभावरी स्थित है।

सूर्य की चाल

Aum Jyotish Kendraसूर्य भगवान की चाल पन्द्रह घड़ी में सवा सौ करोड़ साढ़े बारह लाख योजन से कुछ अधिक है। उनके साथ-साथ चन्द्रमा तथा अन्य नक्षत्र भी घूमते रहते हैं। सूर्य का रथ एक मुहूर्त (दो घड़ी) में चौंतीस लाख आठ सौ योजन चलता है। इस रथ का संवत्सर नाम का एक पहिया है जिसके बारह अरे (मास), छः नेम, छः ऋतु और तीन चौमासे हैं। इस रथ की एक धुरी मानसोत्तर पर्वत पर तथा दूसरा सिरा मेरु पर्वत पर स्थित है। इस रथ में बैठने का स्थान छत्तीस लाख योजन लम्बा है तथा अरुण नाम के सारथी इसे चलाते हैं। हे राजन्! भगवान भुवन भास्कर इस प्रकार नौ करोड़ इंक्यावन लाख योजन लम्बे परिधि को एक क्षण में दो सहस्त्र योजन के हिसाब से तह करते हैं।"

सूर्य के पास

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"हे राजन्! सूर्य की परिक्रमा का मार्ग मानसोत्तर पर्वत पर इंक्यावन लाख योजन है। मेरु पर्वत के पूर्व की ओर इन्द्रपुरी है, दक्षिण की ओर यमपुरी है, पश्चिम की ओर वरुणपुरी है और उत्तर की ओर चन्द्रपुरी है। मेरु पर्वत के चारों ओर सूर्य परिक्रमा करते हैं इस लिये इन पुरियों में कभी दिन, कभी रात्रि, कभी मध्याह्न और कभी मध्यरात्रि होता है। सूर्य भगवान जिस पुरी में उदय होते हैं उसके ठीक सामने अस्त होते प्रतीत होते हैं। जिस पुरी में मध्याह्न होता है उसके ठीक सामने अर्ध रात्रि होती है।

ज्योतिषां रविरंशुमान - सूर्य की स्थिति

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श्रीमदभागवत पुराण में श्री शुकदेव जी के अनुसार:- भूलोक तथा द्युलोक के मध्य में अन्तरिक्ष लोक है। इस द्युलोक में सूर्य भगवान नक्षत्र तारों के मध्य में विराजमान रह कर तीनों लोकों को प्रकाशित करते हैं। उत्तरायण, दक्षिणायन तथा विषुक्त नामक तीन मार्गों से चलने के कारण कर्क, मकर तथा समान गतियों के छोटे, बड़े तथा समान दिन रात्रि बनाते हैं। जब भगवान सूर्य मेष तथा तुला राशि पर रहते हैं तब दिन रात्रि समान रहते हैं। जब वे वृष, मिथुन, कर्क, सिंह और कन्या राशियों में रहते हैं तब क्रमशः रात्रि एक-एक मास में एक-एक घड़ी बढ़ती जाती है और दिन घटते जाते हैं। जब सूर्य वृश्चिक, मकर, कुम्भ, मीन ओर मेष राशि में रहते हैं तब क्रमशः दिन प्रति मास एक-एक घड़ी बढ़ता जाता है तथा रात्रि कम होती जाती है।

सूर्य आत्मा जगत्स्तथुषश्च - ऋग्वेद

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वेदों में सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है.समस्त चराचर जगत की आत्मा सूर्य ही है.सूर्य से ही इस पृथ्वी पर जीवन है,यह आज एक सर्वमान्य सत्य है.वैदिक काल में आर्य सूर्य को ही सारे जगत का कर्ता धर्ता मानते थे.सूर्य का शब्दार्थ है सर्व प्रेरक.यह सर्व प्रकाशक,सर्व प्रवर्तक होने से सर्व कल्याणकारी है.ऋग्वेद के देवताओं कें सूर्य का महत्वपूर्ण स्थान है.यजुर्वेद ने "चक्षो सूर्यो जायत" कह कर सूर्य को भगवान का नेत्र माना है.छान्दोग्यपनिषद में सूर्य को प्रणव निरूपित कर उनकी ध्यान साधना से पुत्र प्राप्ति का लाभ बताया गया है.ब्रह्मवैर्वत पुराण तो सूर्य को परमात्मा स्वरूप मानता है.प्रसिद्ध गायत्री मंत्र सूर्य परक ही है.सूर्योपनिषद में सूर्य को ही संपूर्ण जगत की उतपत्ति का एक मात्र कारण निरूपित किया गया है.और उन्ही को संपूर्ण जगत की आत्मा तथा ब्रह्म बताया गया है.सूर्योपनिषद की श्रुति के अनुसार संपूर्ण जगत की सृष्टि तथा उसका पालन सूर्य ही करते है.सूर्य ही संपूर्ण जगत की अंतरात्मा हैं.अत: कोई आश्चर्य नही कि वैदिक काल से ही भारत में सूर्योपासना का प्रचलन रहा है.पहले यह सूर्योपासना मंत्रों से होती थी.बाद में मूर्ति पूजा का प्रचलन हुआ तो यत्र तत्र सूर्य मन्दिरों का नैर्माण हुआ.भविष्य पुराण में ब्रह्मा विष्णु के मध्य एक संवाद में सूर्य पूजा एवं मन्दिर निर्माण का महत्व समझाया गया है.अनेक पुराणों में यह आख्यान भी मिलता है,कि ऋषि दुर्वासा के शाप से कुष्ठ रोग ग्रस्त श्री कृष्ण पुत्र साम्ब ने सूर्य की आराधना कर इस भयंकर रोग से मुक्ति पायी थी.प्राचीन काल में भगवान सूर्य के अनेक मन्दिर भारत में बने हुए थे.उनमे आज तो कुछ विश्व प्रसिद्ध हैं.वैदिक साहित्य में ही नही आयुर्वेद,ज्योतिष,हस्तरेखा शास्त्रों में सूर्य का महत्व प्रतिपादित किया गया है.

Friday, 14 March 2014

Nature of Rashi

मेष

 मेष –  पुरुष जाति, चरसंज्ञक, अग्नि तत्व, पूर्व दिशा की मालिक, मस्तक का बोध कराने वाली, पृष्ठोदय, उग्र प्रकृति, लाल-पीले वर्ण वाली, कान्तिहीन, क्षत्रियवर्ण, सभी समान अंग वाली और अल्पसन्तति है। यह पित्त प्रकृतिकारक है। इसका प्राकृतिक स्वभाव साहसी, अभिमानी और मित्रों पर कृपा रखने वाला है।


वृष – स्त्री राशि, स्थिरसंज्ञक, भूमितत्व, शीतल स्वभाव, कान्ति रहित, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, वातप्रकृति, रात्रिबली, चार चरण वाली, श्वेत वर्ण, महाशब्दकारी, विषमोदयी, मध्य सन्तति, शुभकारक, वैश्य वर्ण और शिथिल शरीर है। यह अर्द्धजल राशि कहलाती है। इसका प्राकृतिक स्वभाव स्वार्थी, समझ-बूझकर काम करने वाली और सांसारिक कार्यों में दक्ष होती है। इससे कण्ठ, मुख और कपोलों का विचार किया जाता है।


मिथुन – पश्चिम दिशा की स्वामिनी, वायुतत्व, तोते के समान हरित वर्ण वाली, पुरुष राशि, द्विस्वभाव, विषमोदयी, उष्ण, शूद्रवर्ण, महाशब्दकारी, चिकनी, दिनबली, मध्य सन्तति और शिथिल शरीर है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विद्याध्ययनी और शिल्पी है। इससे हाथ, शरीर के कंधों और बाहुओं का विचार किया जाता है।

कर्क – चर, स्त्री जाति, सौम्य और कफ प्रकृति, जलचारी, समोदयी, रात्रिबली, उत्तर दिशा की स्वामिनी, रक्त-धवल मिश्रित वर्ण, बहुचरण एवं संतान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव सांसारिक उन्नति में प्रयत्नशीलता, लज्जा, और कार्यस्थैर्य है। इससे पेट, वक्षःस्थल और गुर्दे का विचार किया जाता है।


सिंह – पुरुष जाति, स्थिरसंज्ञक, अग्नितत्व, दिनबली, पित्त प्रकृति, पीत वर्ण, उष्ण स्वभाव, पूर्व दिशा की स्वामिनी, पुष्ट शरीर, क्षत्रिय वर्ण, अल्पसन्तति, भ्रमणप्रिय और निर्जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वरूप मेष राशि जैसा है, पर तो भी इसमें स्वातन्त्र्य प्रेम और उदारता विशेष रूप से विद्यमान है। इससे हृदय का विचार किया जाता है।


कन्या – पिंगल वर्ण, स्त्रीजाति, द्विस्वभाव, दक्षिण दिशा की स्वामिनी, रात्रिबली, वायु और शीत प्रकृति, पृथ्वीतत्व और अल्पसन्तान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव मिथुन जैसा है, पर विशेषता इतनी है कि अपनी उन्नति और मान पर पूर्ण ध्यान रखने की यह कोशिश करती है। इससे पेट का विचार किया जाता है।


तुला – पुरुष जाति, चरसंज्ञक, वायुतत्व, पश्चिम दिशा की स्वामिनी, अल्पसंतान वाली, श्यामवर्ण शीर्षोदयी, शूद्रसंज्ञक, दिनबली, क्रूर स्वभाव और पाद जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विचारशील, ज्ञानप्रिय, कार्य-सम्पादक और राजनीतिज्ञ है। इससे नाभि के नीचे के अंगों का विचार किया जाता है।


वृश्चिक – स्थिरसंज्ञक, शुभ्रवर्ण, स्त्रीजाति, जलतत्व, उत्तर दिशा की स्वामिनी, रात्रिबली, कफ प्रकृति, बहुसन्तति, ब्राह्मण वर्ण और अर्द्ध जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव दम्भी, हठी, दृढ़प्रतिज्ञ, स्पष्टवादी और निर्मल है। इससे शरीर के क़द और जननेन्द्रियों का विचार किया जाता है।


धनु – पुरुष जाति, कांचन वर्ण, द्विस्वभाव, क्रूरसंज्ञक, पित्त प्रकृति, दिनबली, पूर्व दिशा की स्वामिनी, दृढ़ शरीर, अग्नि तत्व, क्षत्रिय वर्ण, अल्पसन्तति और अर्द्ध जल राशि है। इसका प्राकृतिक स्वभाव अधिकारप्रिय, करुणामय और मर्यादा का इच्छुक है। इससे पैरों की सन्धि और जंघाओं का विचार किया जाता है।


मकर – चरसंज्ञक, स्त्री जाति, पृथ्वीतत्व, वात प्रकृति, पिंगल वर्ण, रात्रिबली, वैश्यवर्ण, शिथिल शरीर और दक्षिण दिशा की स्वामिनी है। इसका प्राकृतिक स्वभाव उच्च दशाभिलाषी है। इससे घुटनों का विचार किया जाता है।


कुम्भ – पुरुष जाति, स्थिरसंज्ञक, वायु तत्व, विचित्र वर्ण, शीर्षोदय, अर्द्धजल, त्रिदोष प्रकृति, दिनबली, पश्चिम दिशा की स्वामिनी, उष्ण स्वभाव, शूद्र वर्ण, क्रूर एवं मध्य संतान वाली है। इसका प्राकृतिक स्वभाव विचारशील, शान्तचित्त, धर्मवीर और नवीन बातों का आविष्कारक है। इससे पेट की भीतरी भागों का विचार किया जाता है।


मीन – द्विस्वभाव, स्त्री जाति, कफ प्रकृति, जलतत्व, रात्रिबली, विप्रवर्ण, उत्तरदिशा की स्वामिनी और पिंगल वर्ण है। इसका प्राकृतिक स्वभाव उत्तम, दयालु और दानशील है। यह सम्पूर्ण जलराशि है। इससे पैरों का विचार किया जाता है।

Astrology is a Science !


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